Thursday, September 11, 2014

हम दोनों

हम दोनों कितनी ही देर,
अपने अपने दायरे में क़ैद,
बैठे रहे एक दूसरे के करीब,
मगर अजनबी से

बिखरे हुए पलों में से
चुनते रहे बस
एक दूसरे की गलतियां.
बुनते रहे शिकायतें
जो थी जिंदगी से.

मिल जाती थी नज़रें कभी कभी
छेड़ जाती थी होंठों पे मुस्कान हलकी
पर माथे की शिकन कह जाती थी
जो भूली सी चोटें थी गुज़रे कल की.

ये सफर शायद यूँ ही चले,
मंजिल... मिले ना मिले...
पर दायरे यही रहेंगे...
फासले यही रहेंगे...

जान पहचान होगी भी,
तो बस खुद की बेबसी से...

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