Thursday, April 24, 2014

आदत नहीं

आदत नहीं कि सोचूँ
यूँ होता तो क्या होता
कुछ बदले से हम होते
कुछ बदला समा होता

कुछ ज़िक्र और होते
कुछ बातें और होती
कुछ जाम और छलकते
कुछ गहरा धुँआ होता

ना सोच के भी कितना
सोचा हुआ है हमने
सोचो कि सोचते क्या
गर सच में सोचा होता

आज मैंने एक नज़्म बेची


आज मैंने एक नज़्म बेची और एक सपना खरीद लिया।
पराया था जो गिरवी रखा, जो था अपना खरीद लिया।

आहों का क्या मोल मिला, और आँसू किस भाव बिके,
सब भूला मैं जब मैंने होठों का हँसना खरीद लिया।

बाकी जमा और हिसाबो किताबत, फुर्सत में निपटायेंगे,
तब सोचेंगे कितना खोया था और कितना खरीद लिया।

मैं रंगा अपने ही रंग में

मैं रंगा अपने ही रंग में,
मैं डूबा अपने अन्दर।
मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

मैं खुद से नाराज़ भी रहता
मैं खुद से मनता पहरों
मैं अपने ही मन का जोगी
मैं खुद में रमता पहरों
मैंने खुद से दोस्ती की
खुद अपना दुश्मन बनकर।

मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

मैंने मैं को भूला भी है
फिर उतना ही याद किया
मैंने मैं से माँगा जो भी
उसने मैं के बाद दिया
अब मैं हूँ और मैं है मेरा
जो अब है मुझसे बेहतर।

मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

झूठे सपने

झूठे सपने चले आये हैं
मेरे सच को झुठलाने।
बहकी बहकी बातें कर के
मेरे मन को भरमाने

सेंध लगा कर चोरी करते
मैंने पकड़ा इनको कई बार
मैंने अनसुनी की बरसो
इनकी जज़बाती दरकार 
फिर भी छुप कर कस जाते हैं
सपने फिकरे मनमाने

कभी बिठाके सामने अपने
मैंने इनको समझाया भी
मैं खुश हूँ अपने सच से
मैंने इनको दिखाया भी
पर अनदेखा मुझको करके
ये लिखते हैं अफ़साने

झूठे सपने चले आये हैं
मेरे सच को झुठलाने।
बहकी बहकी बातें कर के
मेरे मन को भरमाने

I love you ज़िन्दगी

साँस लेने की भी फुर्सत देती नहीं कभी
बेकरारी, बेचैनी, बेताबी, बेकसी
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

अजनबी सी चौराहों पर मिलती है कभी
चार आने के भाव पर भी बिकती है कभी
फूटपाथ की ठोकर भी है
हीरों की ये मोहर भी है
burger भी है, रोटी भी
अधपकी सी, अधजली
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

नाम से कोई पुकारे, चाहे पीछे भागे,
लेकिन बढ़ जाती है बस ये मुंह चिढ़ा के आगे
किसी नेता के वादे सी
या पार्टी के इरादे सी
मुंह लगे तो देसी है
सिर चढ़े तो विलायती
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

मोड़ माड़ के बटुए में

मोड़ माड़ के बटुए में
रख तो रही हो हिफाज़त से
पर ये मेरी यादें हैं
तुम भूलोगी कुछ पल में

बिसराए लम्हों की कोई
कीमत कहाँ होती है कभी 
हिलते डुलते रहते हैं बस
ये धड़कन की हलचल में 

टकरायेंगी कभी कहीं जो
ये बटुए की सफाई में
काई जैसी उभरेंगी फिर
आज बनकर ये कल में

कम से कम झूठे वादे की
एक निशानी इन पे लगा दो
ताकि लगती रहें ज़रूरी
इस पल में कभी उस पल में...

- 19th April 2014

नाम वही इक जाना बूझा

नाम वही इक जाना बूझा
बात वही इक देखी भाली
काम वही इक सोचा समझा
रात वही इक गहरी काली

तुम से मुझ तक दूरी इतनी
पहरों, मीलों, सदियों जितनी
उस पर दरवाज़ों पे ताले
खिड़की जो ना खुलने वाली

उस पर बोली भाषा बिरली
कुछ समझे कुछ और ही निकली
आँखों से कहना क्या कहना
पलकों पर पर्दों की जाली

रिश्ते को दिए नाम कई
फिसला रेत के जैसा फिर भी
थोड़ा मुट्ठी में भी समेटा
हाथ रहे खाली के खाली

22nd April 2014