Sunday, November 16, 2014

तुम्हारी तस्वीर

तुम्हारी तस्वीर बनाते बनाते मैं रुक गया
आँखें बनाता था पर चाहता था
कि तस्वीर मेरी तरफ देखती

जाने क्यों तुम्हारी आँखें बार बार
मुझसे परे, दूर कहीं जाकर टिक जाती थी

सारी रात यूँ ही बीत गई
तुम उधर कैनवस पर
कहीं दूर देखती हुई...
मैं इधर पास में
बस तुम्हे देखता हुआ.

सुबह देखा तुम कैनवस पर नहीं थी.
शायद चली गई थीं.
वहीँ... जहां देख रही थीं.

माँगा था वो

माँगा था वो मिला नहीं
फिर भी मुझको गिला नहीं

कहने को अम्बर से आगे
अरमानों को लेकर भागे
सपने बैठ सिरहाने जागे
नींदों का सिलसिला नहीं

खुद से हारे सबसे जीते
बाहों पर तमगों को सीते
कितने मौसम बरसे बीते
फूल आस का खिला नहीं

यूँ तो सबका कहना माना
जाने क्या था मन को पाना
जंग जीत कर हमने जाना
जीतना था ये किला नहीं