मेरे ही मन का ताना बाना
मुझको समेटे बैठा है
वरना मैं कब का टूट कर
फर्श पर बिखरा होता...
सिमटा हूँ फैली दिशाओं में
बंधा हूँ लेकिन हवाओं में
मैं 'बहुत' हूँ तो ये हाल है
कैसा होता जो 'ज़रा' होता...
मैं बहता रहता पारे सा
और परस भी होता अनछुआ
यादों सा क़ैद ना हो पाता
ना वादों सा बिसरा होता...
मुझको समेटे बैठा है
वरना मैं कब का टूट कर
फर्श पर बिखरा होता...
सिमटा हूँ फैली दिशाओं में
बंधा हूँ लेकिन हवाओं में
मैं 'बहुत' हूँ तो ये हाल है
कैसा होता जो 'ज़रा' होता...
मैं बहता रहता पारे सा
और परस भी होता अनछुआ
यादों सा क़ैद ना हो पाता
ना वादों सा बिसरा होता...
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