Thursday, April 24, 2014

आज मैंने एक नज़्म बेची


आज मैंने एक नज़्म बेची और एक सपना खरीद लिया।
पराया था जो गिरवी रखा, जो था अपना खरीद लिया।

आहों का क्या मोल मिला, और आँसू किस भाव बिके,
सब भूला मैं जब मैंने होठों का हँसना खरीद लिया।

बाकी जमा और हिसाबो किताबत, फुर्सत में निपटायेंगे,
तब सोचेंगे कितना खोया था और कितना खरीद लिया।

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