Thursday, June 9, 2016

फिर कुछ लिखने बैठा हूँ

फिर कुछ लिखने बैठा हूँ
कुछ ऐसा जो बिक जाए
अपना कोई सपना जो
दूजी आँखों को दिख जाए

जिसके माने समझाने में
लफ्ज़ मेरे कुर्बान ना हों
काफी जिसका ज़िक्र ही हो बस
और कोई पहचान ना हो

मैं बेसुध हूँ कलम को थामे
कागज़ शायद कुछ लिख जाए

कुछ कह डालूँ ऐसा कि
बरसों तक दोहराएँ सब
बोल मेरे पर, गीत सभी का
अपनी धुन में गायें सब

चला चले ख़्वाबों का मेला
इक आये जो इक जाए

- Manasvi
2nd Nov 2015

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