Monday, September 24, 2018

आने जाने की टिकट

आने जाने की टिकट
और दो दिन का ख़र्चा
होटेल की बुकिंग
और थोड़ा ख़रीदारी का बजट
इतना ही लेकर चला था घर से

पर वो काँक्रीट का जंगल जादुई था
वहाँ जाकर वापस आने का
मन ही नहीं हुआ
ऊँची इमारतों ने पहरेदारी की
टार की सड़कें बेड़ियाँ बन गयी
और देखते देखते मैं
सैलानी से सिटिज़ेन बन गया
भीड़ में गुम
भीड़ का हिस्सा

घर की याद भी नहीं आती
अब तो याद भी नहीं कि
घर था कैसा?
बस वो वापसी की टिकट
कभी कभी उस शहर का नाम
याद दिला जाती है,
जहाँ कुछ छोड़ के आया था

शायद अपना वजूद...
शायद अपनी पहचान...

#manasvi
31st October 2017

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