Saturday, May 10, 2014

लफ्ज़

सब कुछ अच्छा ही तो था
शामें थी, तुम्हारे संग
बातें थी, कभी न ख़त्म होने वाली
ज़िक्र था, शायरों का, फलसफों का.

फिर सब बिगड़ क्यों गया?
ऐसे जैसे धूल की आंधी

स्याह कर गयी हो सिन्दूरी शाम को
बातों में कुछ कहने को ना रहा
ज़िक्र सारे लगने लगे बहाने
साथ के पलों को समेटे रखने के.

बस इतना ही तो कहा था मैंने
कि तुमसे प्यार हो चला है...

मैं वापस ले लूं अपने ये लफ्ज़
तो क्या हो जाएगा सब पहले सा?

क्या लौट आएगा शाम का वो रंग?
क्या शुरू हो जाएँगी वो बातें?
और ज़िक्र सारे बोझ लगना बंद हो जायेंगे?

अगर नहीं तो रहने दो वो लफ्ज़
वहीँ उसी मोड़ पर...
कभी गुज़रो दोबारा वहाँ से
तो उठा लेना उन्हें.
कुछ फूल मुरझाने के बाद भी
महका करते हैं।

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