Sunday, December 28, 2014

My salute to 2014

ओ जाते साल जाते जाते इतना बताता जा
आने वाले साल की कोई झलक दिखाता जा

जो बोये थे सपने उन में अंकुर आएंगे या नहीं
जो सपने टूटेंगे उनकी खनक सुनाता जा

मैं लिखूंगा अपनी किस्मत जिन पन्नों पर स्याही से
बीते साल की रेखा उन पन्नों से मिटाता जा

मैंने दिल से माना है शुकर तेरे अहसानो का
तूने ज़ुल्म किये हैं तो अहसान जताता जा

Sunday, November 16, 2014

तुम्हारी तस्वीर

तुम्हारी तस्वीर बनाते बनाते मैं रुक गया
आँखें बनाता था पर चाहता था
कि तस्वीर मेरी तरफ देखती

जाने क्यों तुम्हारी आँखें बार बार
मुझसे परे, दूर कहीं जाकर टिक जाती थी

सारी रात यूँ ही बीत गई
तुम उधर कैनवस पर
कहीं दूर देखती हुई...
मैं इधर पास में
बस तुम्हे देखता हुआ.

सुबह देखा तुम कैनवस पर नहीं थी.
शायद चली गई थीं.
वहीँ... जहां देख रही थीं.

माँगा था वो

माँगा था वो मिला नहीं
फिर भी मुझको गिला नहीं

कहने को अम्बर से आगे
अरमानों को लेकर भागे
सपने बैठ सिरहाने जागे
नींदों का सिलसिला नहीं

खुद से हारे सबसे जीते
बाहों पर तमगों को सीते
कितने मौसम बरसे बीते
फूल आस का खिला नहीं

यूँ तो सबका कहना माना
जाने क्या था मन को पाना
जंग जीत कर हमने जाना
जीतना था ये किला नहीं

Thursday, September 18, 2014

साँझ

साँझ की नहीं चाह मुझको दोपहर दे दो
बाँट दो अहसान सारे, मुझको कहर दे दो

दो घड़ी मुझको मेरे होने का यकीं आये
साथ ज़ख्मों के दवाओं का असर दे दो

मैं चलूँ इतना कि थक कर बैठना पड़े
रुकने की इतनी वजह मिले अगर, दे दो

लौट कर आना पड़े दोराहों पे बार बार
जो कहीं जाती ना हो, ऐसी डगर दे दो

Friday, September 12, 2014

पुराना एल्बम

आज मैं फिर एक पुराने एल्बम से गुज़रा
आज मैने भुलाए से कुछ पलों को जी देखा

रोक कर देखा सरकती वक़्त की सुइयों को भी
और फिर भी दो दफा उस घड़ी को सही देखा

चेहरों में तस्वीरों के मुस्कान बहुत सी पायी
पर उन माथों पर ठहरी शिकन को नहीं देखा

जब किसी अनजानी सी हँसी पर नज़र ठिठकी
बरसों बाद दिल को कहीं और होश कहीं देखा

Thursday, September 11, 2014

हम दोनों

हम दोनों कितनी ही देर,
अपने अपने दायरे में क़ैद,
बैठे रहे एक दूसरे के करीब,
मगर अजनबी से

बिखरे हुए पलों में से
चुनते रहे बस
एक दूसरे की गलतियां.
बुनते रहे शिकायतें
जो थी जिंदगी से.

मिल जाती थी नज़रें कभी कभी
छेड़ जाती थी होंठों पे मुस्कान हलकी
पर माथे की शिकन कह जाती थी
जो भूली सी चोटें थी गुज़रे कल की.

ये सफर शायद यूँ ही चले,
मंजिल... मिले ना मिले...
पर दायरे यही रहेंगे...
फासले यही रहेंगे...

जान पहचान होगी भी,
तो बस खुद की बेबसी से...

Wednesday, August 20, 2014

बस मुझे आज...

बस मुझे आज खुल कर बरस जाने दो।

मैं ठहरा यहाँ तो कुछ सोच कर ही
बहुत देर से बूँदें खुद में समेटे
बहुत ताप झेला है अपने ही अन्दर
आँखों से बहकर उमस जाने दो
बस मुझे आज खुल कर बरस जाने दो।

भिगोता रहा हूँ मैं कितने ही मौसम
बना हूँ मैं जैसे इसी के लिए
मुझे भी कभी आस दिल में जगाये
किसी के लिए तो तरस जाने दो
बस मुझे आज खुल कर बरस जाने दो।

Saturday, July 19, 2014

भीगा भीगा लम्हा

भीगा भीगा लम्हा मुझसे इतना कहने आया था,
बूंदों का आँचल यूँ उसके चेहरे से टकराया था.
मदहोशी के आलम में वो होश की बातें करता था
थोडा सोचा समझा सा, वो थोडा सा बौराया था.

कुछ यादें थी जेब में उसके, ठंडी सी, कुछ गुनगुनी
कुछ भूली सी, बिसरी सी, कुछ जैसे हो अनसुनी.
फिर भी साँसों में अनजानी खुशबु जैसे बिखर गयी
जब अपने प्याले से उसने मेरा प्याला टकराया था

भूल के बैठा अपनी सुध वो, कहना था कुछ खास नहीं
ठहरा पल खो जाता है, ये उसको था अहसास नहीं
जाने किस पल खो गया वो पल बड़ा ही प्यारा था.
जिसकी याद में दिल भरा, आँखों से छलक आया था.

Sunday, July 13, 2014

जीवन

मन कहे जिस छंद में
मन हँसे जिस ताल में
उस में धुन पिरो पाऊं तो
जीवन सुर में बीतेगा

मन लिखे जिस भाषा में
मन गढ़े जो कहानियाँ
उन पन्नों को पढ़ पाऊं तो
जीवन का सच समझेगा

मन रोपे जो क्यारियाँ
मन बोये जिन फूलों को
उस उपवन को सींचूं तो
जीवन हर पल महकेगा

8th july 2014

Thursday, June 12, 2014

बिखरा हुआ

बिखरा हुआ है सब फिर भी
समेटने से डरता हूँ।
मैं अक्सर खाली पन्नों पर
भूली तारीखें भरता हूँ।

कहता हूँ कल मिल लूँगा
मैं ज़ख्मों को कल सिल लूँगा
खुद से कितने वादे कर के
मैं हर बार मुकरता हूँ

समेट लिया तो पता चलेगा
जो भी है पास वो काफी नहीं
कहने को सफ़र लम्बा है किया
पर आगे बढ़ा ज़रा सा भी नहीं
दो सीढियाँ चढ़ता हूँ मैं
और फिर चार उतरता हूँ.

बिखरा हुआ है सब फिर भी
समेटने से डरता हूँ।
मैं अक्सर खाली पन्नों पर
भूली तारीखें भरता हूँ।

Sunday, May 25, 2014

चलते चले

चलते चले जिन रास्तों पे
बिखरे फिरे जिन मोड़ों पे
आज उन राहों पे कोई
हमसफ़र दिखता नहीं।

कल ही की तो बात थी
सुबहा की गर्म चाय की
चुस्कियों में थे ठहाके
इक जोश था इक आग थी
आज हैं बस सर्द आहें
पहचान है, रिश्ता नहीं।

मैं सफ़र में था मुझे
कोई साथ है एहसास था
सरगोशियाँ बराबर रही
जो कुछ भी था वो ख़ास था
बादल अभी भी हैं वही
पर प्यार बरसता नहीं।

Tuesday, May 13, 2014

कुछ पल

कुछ पल यूँ ही बीत जाते हैं,
किसी इन्साफ की दरकार नहीं करते
किसी फैसले पर मजबूर नहीं करते
कुछ पल यूँ ही बीत जाते हैं...

फिर भी वो पल
जिंदगी भर याद आते हैं.
जताते हैं उस नाइंसाफी को, जो हुई
बताते हैं वो फैसले जो नहीं लिए
ठहर जाते तो शायद घायल कर देते...

कुछ पल बस गुज़र जाते हैं
सवाल पूछ कर, जवाब सुने बगैर
ज्यादा सोचने पर मजबूर नहीं करते
कुछ पल बस...
गुज़र जाते हैं...

काश...

काश तुम्हे न चाह पाना भी 
इतना ही आसान होता...

काश आँखें बंद करते ही तुम कहीं खो जाती
ना कोई नामोनिशान होता...

काश तुम्हारी यादों पर पहरा लग पाता
दिल दर्द से अनजान होता...

काश तुम्हारे ख़्वाबों के सितारे ना होते
साफ़ मेरी नींदों का आसमान होता...

फिर कभी

फिर कभी बिखरा दिखूं तो मुझको सहेजना
फिर कभी बहका दिखू तो मुझको सम्हालना

फिर कभी तो धूप कड़ी तो साया कर देना
फिर कभी हो रात घनी तो चाँद टाँकना

फिर कभी चुप सा लगूं, दो बोल बोलना
फिर कभी सहमा दिखूं तो हाथ थामना

बस इतना ही कहना है, ख्वाहिश समझो या इल्तज़ा
अब ये तुम पर है देखो, मानना न मानना

Saturday, May 10, 2014

लफ्ज़

सब कुछ अच्छा ही तो था
शामें थी, तुम्हारे संग
बातें थी, कभी न ख़त्म होने वाली
ज़िक्र था, शायरों का, फलसफों का.

फिर सब बिगड़ क्यों गया?
ऐसे जैसे धूल की आंधी

स्याह कर गयी हो सिन्दूरी शाम को
बातों में कुछ कहने को ना रहा
ज़िक्र सारे लगने लगे बहाने
साथ के पलों को समेटे रखने के.

बस इतना ही तो कहा था मैंने
कि तुमसे प्यार हो चला है...

मैं वापस ले लूं अपने ये लफ्ज़
तो क्या हो जाएगा सब पहले सा?

क्या लौट आएगा शाम का वो रंग?
क्या शुरू हो जाएँगी वो बातें?
और ज़िक्र सारे बोझ लगना बंद हो जायेंगे?

अगर नहीं तो रहने दो वो लफ्ज़
वहीँ उसी मोड़ पर...
कभी गुज़रो दोबारा वहाँ से
तो उठा लेना उन्हें.
कुछ फूल मुरझाने के बाद भी
महका करते हैं।

Saturday, May 3, 2014

बस थोड़ी देर

बस थोड़ी देर
यूँ ही खामोश खड़े रहो।
कुछ कहना नहीं
बस देखते रहो मुझे
किसी अजनबी की तरह।

तुम्हे हक़ है वो सोचने का
जो तुमने सोचा है।
मुझे कोई सफाई नहीं देनी
हालाँकि, मौका है।
तुमसे मुझसे हो कर
साँसों को गुजरने दो।
कुछ कहना नहीं
बस देखते रहो मुझे
किसी अजनबी की तरह।

मैं इस पल को कैद करके
कभी फुर्सत में जियूँगा।
तुम्हारे नाम का प्याला भी
मैं खुद ही पियूँगा।
फिलहाल दरमियाँ इन
लम्हों को बरसने दो।
कुछ कहना नहीं
बस देखते रहो मुझे
किसी अजनबी की तरह।

Thursday, April 24, 2014

आदत नहीं

आदत नहीं कि सोचूँ
यूँ होता तो क्या होता
कुछ बदले से हम होते
कुछ बदला समा होता

कुछ ज़िक्र और होते
कुछ बातें और होती
कुछ जाम और छलकते
कुछ गहरा धुँआ होता

ना सोच के भी कितना
सोचा हुआ है हमने
सोचो कि सोचते क्या
गर सच में सोचा होता

आज मैंने एक नज़्म बेची


आज मैंने एक नज़्म बेची और एक सपना खरीद लिया।
पराया था जो गिरवी रखा, जो था अपना खरीद लिया।

आहों का क्या मोल मिला, और आँसू किस भाव बिके,
सब भूला मैं जब मैंने होठों का हँसना खरीद लिया।

बाकी जमा और हिसाबो किताबत, फुर्सत में निपटायेंगे,
तब सोचेंगे कितना खोया था और कितना खरीद लिया।

मैं रंगा अपने ही रंग में

मैं रंगा अपने ही रंग में,
मैं डूबा अपने अन्दर।
मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

मैं खुद से नाराज़ भी रहता
मैं खुद से मनता पहरों
मैं अपने ही मन का जोगी
मैं खुद में रमता पहरों
मैंने खुद से दोस्ती की
खुद अपना दुश्मन बनकर।

मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

मैंने मैं को भूला भी है
फिर उतना ही याद किया
मैंने मैं से माँगा जो भी
उसने मैं के बाद दिया
अब मैं हूँ और मैं है मेरा
जो अब है मुझसे बेहतर।

मैं सुनता बस अपनी बातें,
मैं बस मैं होता अक्सर।

झूठे सपने

झूठे सपने चले आये हैं
मेरे सच को झुठलाने।
बहकी बहकी बातें कर के
मेरे मन को भरमाने

सेंध लगा कर चोरी करते
मैंने पकड़ा इनको कई बार
मैंने अनसुनी की बरसो
इनकी जज़बाती दरकार 
फिर भी छुप कर कस जाते हैं
सपने फिकरे मनमाने

कभी बिठाके सामने अपने
मैंने इनको समझाया भी
मैं खुश हूँ अपने सच से
मैंने इनको दिखाया भी
पर अनदेखा मुझको करके
ये लिखते हैं अफ़साने

झूठे सपने चले आये हैं
मेरे सच को झुठलाने।
बहकी बहकी बातें कर के
मेरे मन को भरमाने

I love you ज़िन्दगी

साँस लेने की भी फुर्सत देती नहीं कभी
बेकरारी, बेचैनी, बेताबी, बेकसी
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

अजनबी सी चौराहों पर मिलती है कभी
चार आने के भाव पर भी बिकती है कभी
फूटपाथ की ठोकर भी है
हीरों की ये मोहर भी है
burger भी है, रोटी भी
अधपकी सी, अधजली
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

नाम से कोई पुकारे, चाहे पीछे भागे,
लेकिन बढ़ जाती है बस ये मुंह चिढ़ा के आगे
किसी नेता के वादे सी
या पार्टी के इरादे सी
मुंह लगे तो देसी है
सिर चढ़े तो विलायती
कितनी हैं शिकायतें पर
i love you ज़िन्दगी.

मोड़ माड़ के बटुए में

मोड़ माड़ के बटुए में
रख तो रही हो हिफाज़त से
पर ये मेरी यादें हैं
तुम भूलोगी कुछ पल में

बिसराए लम्हों की कोई
कीमत कहाँ होती है कभी 
हिलते डुलते रहते हैं बस
ये धड़कन की हलचल में 

टकरायेंगी कभी कहीं जो
ये बटुए की सफाई में
काई जैसी उभरेंगी फिर
आज बनकर ये कल में

कम से कम झूठे वादे की
एक निशानी इन पे लगा दो
ताकि लगती रहें ज़रूरी
इस पल में कभी उस पल में...

- 19th April 2014

नाम वही इक जाना बूझा

नाम वही इक जाना बूझा
बात वही इक देखी भाली
काम वही इक सोचा समझा
रात वही इक गहरी काली

तुम से मुझ तक दूरी इतनी
पहरों, मीलों, सदियों जितनी
उस पर दरवाज़ों पे ताले
खिड़की जो ना खुलने वाली

उस पर बोली भाषा बिरली
कुछ समझे कुछ और ही निकली
आँखों से कहना क्या कहना
पलकों पर पर्दों की जाली

रिश्ते को दिए नाम कई
फिसला रेत के जैसा फिर भी
थोड़ा मुट्ठी में भी समेटा
हाथ रहे खाली के खाली

22nd April 2014